पंचरत्न: संस्कृत वाङ्मय की विविध विधाएँ

पञ्चरत्नम्

परिचय: संस्कृत वाङ्मय के पंचरत्न

यह पृष्ठ संस्कृत साहित्य की विशाल और समृद्ध परम्परा से पाँच चुनी हुई विधाओं की एक झलक प्रस्तुत करता है। यहाँ गूढ़ दार्शनिक चिंतन से लेकर मांगलिक आशीर्वचन, रोचक पौराणिक आख्यान, काल्पनिक औपन्यासिक अंश और एक मार्मिक प्रेम कथा का समावेश है। प्रत्येक खंड अपनी विशिष्ट शैली और भावभूमि को दर्शाता है।

इस संकलन में शामिल हैं:

  • उपनिषदों के दस मंत्र: आत्म-तत्व और ब्रह्म-ज्ञान पर केंद्रित प्रेरणादायक विचार।
  • स्वस्तिवाचन: शुभकार्यों के आरम्भ में प्रयुक्त कल्याणकारी वैदिक मंत्र।
  • पौराणिक कथा: सृष्टि, देवों और ऋषियों से सम्बंधित एक रोचक आख्यान (संक्षेप में)।
  • संस्कृत उपन्यास अंश: समकालीन भावबोध को दर्शाता एक काल्पनिक साहित्यिक टुकड़ा।
  • एक वियोगान्त प्रेम कहानी: मानवीय भावनाओं और नियति के द्वंद्व को दर्शाती कथा।

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भाग 1: उपनिषद् मन्त्राः

उपनिषद् भारतीय दर्शन के शिखर हैं, जहाँ गूढ़तम आध्यात्मिक सत्यों का उद्घाटन किया गया है। ये वेदों के अंतिम भाग हैं, जिन्हें 'वेदान्त' भी कहा जाता है। इनका मुख्य विषय ब्रह्म, आत्मा और जगत के रहस्य को समझना है। प्रस्तुत हैं विभिन्न उपनिषदों से चुने गए दस प्रेरणादायक मंत्र, जो जीवन और अस्तित्व के मूलभूत प्रश्नों पर प्रकाश डालते हैं। ये मंत्र केवल बौद्धिक जिज्ञासा शांत नहीं करते, अपितु आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देते हैं।

  • ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। (ईशोपनिषद् शान्तिपाठ) - वह (ब्रह्म) पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण है; पूर्ण से ही पूर्ण उत्पन्न होता है।
  • असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। (बृहदारण्यकोपनिषद्) - मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
  • तत्त्वमसि। (छान्दोग्योपनिषद्) - तुम वही (ब्रह्म) हो।
  • अहं ब्रह्मास्मि। (बृहदारण्यकोपनिषद्) - मैं ब्रह्म हूँ।
  • अयम् आत्मा ब्रह्म। (माण्डूक्योपनिषद्) - यह आत्मा ब्रह्म है।
  • सत्यमेव जयते नानृतम्। (मुण्डकोपनिषद्) - सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं।
  • उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। (कठोपनिषद्) - उठो, जागो और श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो।
  • मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। (तैत्तिरीयोपनिषद्) - माता को देवता समझो, पिता को देवता समझो, आचार्य को देवता समझो, अतिथि को देवता समझो।
  • चरैवेति चरैवेति। (ऐतरेय ब्राह्मण - उपनिषद् भाव) - चलते रहो, चलते रहो (प्रयत्नशील रहो)।
  • ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। (ईशोपनिषद्) - इस जगत में जो कुछ भी गतिशील है, वह सब ईश्वर से व्याप्त है।

भाग 2: स्वस्तिवाचनम्

स्वस्तिवाचन वैदिक परंपरा का एक अभिन्न अंग है। किसी भी शुभ कार्य, यज्ञ, या संस्कार के आरम्भ में देवताओं का आवाहन कर उनसे कल्याण, शांति और समृद्धि की कामना की जाती है। 'स्वस्ति' का अर्थ है 'कल्याण हो'। इन मंत्रों के माध्यम से विश्व शांति और सर्वभूत हित की भावना प्रकट होती है। ये मंत्र सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं और वातावरण को शुद्ध एवं मांगलिक बनाते हैं। इनमें प्रमुख देवताओं जैसे इंद्र, पूषा, बृहस्पति आदि से रक्षा और मंगल की प्रार्थना की जाती है।

वैदिक यज्ञ का दृश्य
स्वस्तिवाचन मंत्रों का पाठ यज्ञ और शुभ कार्यों को दिव्यता प्रदान करता है।

प्रमुख स्वस्तिवाचन मंत्र:
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
(अर्थ: महान कीर्ति वाले इंद्र हमारा कल्याण करें, विश्व के ज्ञान स्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करें, जिनके चक्र की गति अव्याहत है, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें, बृहस्पति देव हमारा कल्याण करें।)

ॐ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥
(अर्थ: हे परमात्मन्! पृथ्वी में, औषधियों में, द्युलोक में, अन्तरिक्ष में सर्वत्र शान्ति और पुष्टि हो। समस्त दिशाएँ मेरे लिए सुखदायी हों।)

ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
(अर्थ: द्युलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल, औषधि, वनस्पति, विश्वदेव, ब्रह्म - सबमें शान्ति हो। सर्वत्र शान्ति हो। वह वास्तविक शान्ति मुझे प्राप्त हो। ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति।)

भाग 3: पौराणिक कथा - नहुष का पतन

पुराण भारतीय इतिहास, संस्कृति और धर्म के विश्वकोश हैं। इनमें सृष्टि रचना, देवताओं, ऋषियों, राजाओं की कथाओं के माध्यम से धर्म, नीति और दर्शन के उपदेश दिए गए हैं। ऐसी ही एक कथा राजा नहुष की है, जो अपने पुण्य कर्मों से इंद्र के पद तक पहुँच गए थे। इंद्र के पद पर आसीन होने के बाद नहुष में अहंकार उत्पन्न हो गया। उन्होंने इंद्र की पत्नी शची पर कुदृष्टि डाली और सप्तर्षियों को अपनी पालकी ढोने का आदेश दिया।

पालकी ले जाते समय मार्ग में ऋषि अगस्त्य का अपमान करते हुए नहुष ने उन्हें 'सर्प सर्प' (जल्दी चलो) कहकर लात मारी। इस पर क्रोधित होकर अगस्त्य मुनि ने शाप दिया:
गच्छ त्वं मूढ पृथ्वीं सर्पो भूत्वा सुदारुणः।
यावत् स्थास्यन्ति गिरयो यावत् स्थास्यन्ति सागराः॥
(अर्थ: हे मूढ़! तू भयंकर सर्प बनकर पृथ्वी पर जा। जब तक पर्वत और सागर रहेंगे, तब तक तू सर्प योनि में रहेगा।)

ऋषि अगस्त्य नहुष को शाप देते हुए
अहंकार और ऋषि के अपमान के कारण राजा नहुष का इंद्र पद से पतन हुआ।

इस शाप के कारण नहुष स्वर्ग से गिरकर पृथ्वी पर अजगर बन गए। यह कथा सिखाती है कि पद और शक्ति पाकर व्यक्ति को कभी अहंकार नहीं करना चाहिए और ज्ञानियों तथा ऋषियों का सदैव सम्मान करना चाहिए। पुण्य कर्मों का फल तभी स्थिर रहता है जब व्यक्ति में विनम्रता और सदाचार बना रहे।

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भाग 4: संस्कृत उपन्यास अंश (काल्पनिक)

(यह अंश आचार्य वागीश द्वारा रचित काल्पनिक उपन्यास 'नगरिका' से लिया गया है, जो प्राचीन उज्जयिनी की पृष्ठभूमि पर आधारित है।)

संध्या का समय था। क्षिप्रा नदी का जल अस्त होते सूर्य की सिंदूरी आभा से रंजित हो रहा था। महाकाल मंदिर के शिखर पर ध्वजा मन्द पवन में फहरा रही थी। नगर के विपणि मार्ग (बाजार) में कोलाहल अब शांत होने लगा था। अपनी गवाक्ष (खिड़की) से यह दृश्य देखती हुई चारुदत्ता किसी गहरी सोच में डूबी थी। उसके हाथ में वीणा थी, पर अंगुलियाँ तारों पर स्थिर थीं। अभी कुछ क्षण पूर्व ही तो उसे मालविका का संदेश मिला था - एक भोजपत्र पर लिखी कुछ पंक्तियाँ, जिनमें किसी अज्ञात भय की आशंका थी।

प्राचीन उज्जयिनी का काल्पनिक दृश्य
उज्जयिनी की संध्या, जहाँ क्षिप्रा के तट पर एक नायिका विचारों में खोई है।

चारुदत्ता उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका थी, कला और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति। परन्तु उसका हृदय सरल और संवेदनशील था। मालविका उसकी सखी थी, जो राजप्रासाद के षड्यंत्रों से त्रस्त थी। चारुदत्ता ने भोजपत्र को पुनः पढ़ा। अक्षर काँप रहे थे, जैसे लिखते हुए हाथ स्थिर न रहा हो। "प्रिय सखि, संकट घना है। कालकूट विष मेरे प्राण ले सकता है। शीघ्र मिलो।" चारुदत्ता का मन व्यग्र हो उठा। क्या करे वह? कैसे बचाए अपनी सखी को? रात्रि का अंधकार नगर को अपनी चादर में लपेट रहा था, और साथ ही चारुदत्ता के मन में चिंता का अंधकार भी गहराता जा रहा था।

भाग 5: प्रेम कथा - 'शर्वरी' का अंत

(पश्चिमी शैली से प्रभावित, एक काल्पनिक वियोगान्त कथा)

लंदन की धुंध भरी सर्द रात थी। टेम्स नदी के किनारे बने अपने छोटे से स्टूडियो अपार्टमेंट में चित्रकार आर्यन कैनवास पर तूलिका चला रहा था। वह बना रहा था 'शर्वरी' का चित्र – वही शर्वरी, जिसकी झील सी गहरी आँखों और रेशमी बालों ने कभी उसके जीवन में वसंत ला दिया था। वे मिले थे पेरिस में, कला की एक प्रदर्शनी में। दोनों की आत्माएं जैसे एक-दूसरे के लिए ही बनी थीं। उनका प्रेम तीव्र था, उन्मुक्त, जैसे कोई जलप्रपात। वे घण्टों कला, संगीत और जीवन पर बातें करते, एक-दूसरे के आलिंगन में खोये रहते। उनका स्पर्श बिजली सा दौड़ता, और चुम्बन किसी मदिरा से अधिक नशीले थे।

धुंध में खोया हुआ जोड़ा
अतीत की यादें और वर्तमान का अकेलापन, एक प्रेम कहानी का दुखद अंत।

किन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था। शर्वरी एक असाध्य रोग का शिकार हो गई। आर्यन ने दिन-रात उसकी सेवा की, अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, पर वह उसे बचा न सका। शर्वरी की मृत्यु ने आर्यन के जीवन का वसंत छीन लिया, उसे एक अंतहीन पतझड़ में धकेल दिया। आज, उसकी मृत्यु के एक वर्ष बाद, वह बस उसकी स्मृतियों के सहारे जी रहा था। कैनवास पर शर्वरी का चेहरा उभर रहा था, पर आँखों में वही पुरानी चमक नहीं थी। आर्यन की आँखों से आँसू टपक कर कैनवास पर गिरे, रंगों के साथ मिलकर एक अजीब सा धब्बा बना गए - शायद उसके टूटे हुए हृदय का प्रतिबिंब। प्रेम जितना तीव्र था, उसका अंत उतना ही वेदनापूर्ण था।

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