
कथा-परिचय एवं स्रोत संकेत
प्रस्तुत कथा "पटाचारा: प्रज्ञा की ओर", बौद्ध साहित्य की एक प्रसिद्ध और मार्मिक गाथा है। यह कहानी अत्यधिक दुःख, हानि और फिर जागृति व मुक्ति की यात्रा को दर्शाती है।
पटाचारा, एक धनी श्रेष्ठी की पुत्री, प्रेम के कारण अपने परिवार को छोड़कर भाग जाती है, लेकिन नियति उसके जीवन में भयंकर त्रासदियों का जाल बुन देती है। अपने पति, बच्चों और माता-पिता को खोने के बाद, वह विक्षिप्त अवस्था में पहुँच जाती है। अंततः, भगवान बुद्ध के सान्निध्य में उसे सत्य का बोध होता है और वह भिक्षुणी बन जाती है।
संभावित स्रोत प्रेरणा:
- मूल भाव: थेरीगाथा (विशेषकर पटाचारा की गाथाएँ), धम्मपद अट्ठकथा
- दार्शनिक पृष्ठभूमि: चार आर्य सत्य, अनित्यता का सिद्धांत (बौद्ध धर्म)
- चरित्र-चित्रण: बौद्ध जातक कथाओं और अट्ठकथाओं में वर्णित पात्र।
- काल्पनिक सर्ग/अध्याय: 'पटाचारावत्थु', 'विमुक्ति मार्ग पर्व' (यदि यह किसी बड़े ग्रन्थ का हिस्सा होती)।
भाग 1: दुःख का आघात
सुखमय जीवन और पलायन
प्राचीन भारत के श्रावस्ती नगर में एक अत्यंत धनी श्रेष्ठी रहते थे। उनकी एक सुंदरी और गुणवती पुत्री थी, जिसका नाम पटाचारा था। उसे सभी प्रकार के सुख और वैभव प्राप्त थे, और उसका जीवन अत्यंत सुरक्षित वातावरण में बीत रहा था। परन्तु, यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते ही, उसका हृदय अपने ही घर के एक सेवक के प्रति आकर्षित हो गया। सामाजिक बंधनों और कुल की मर्यादा का भय उन्हें अपने प्रेम को व्यक्त करने से रोकता रहा। अंततः, प्रेम की प्रबलता ने उन्हें साहस दिया और एक रात वे दोनों गुप्त रूप से श्रावस्ती छोड़कर दूर एक गाँव में बसने के लिए निकल पड़े।

त्रासदियों का प्रारंभ
गाँव में उनका जीवन सादगी भरा, परन्तु प्रेममय था। समय बीतने पर पटाचारा गर्भवती हुई। प्रसव का समय निकट आने पर, भारतीय परंपरा के अनुसार, उसने अपने पति से अपने माता-पिता के घर जाने की इच्छा व्यक्त की। पति अनिच्छा से सहमत हुआ, परन्तु रास्ते में ही पटाचारा को प्रसव पीड़ा आरम्भ हो गई। भयंकर तूफ़ान के बीच, उसने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन अत्यधिक रक्तस्राव और पीड़ा से उसका पति सर्पदंश का शिकार हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। अकेली और नवजात शिशु के साथ, पटाचारा के दुःख की कोई सीमा न रही।
किसी तरह वह अपने दूसरे पुत्र (जो पहले हुआ था) और नवजात शिशु को लेकर श्रावस्ती की ओर बढ़ी। रास्ते में एक नदी पड़ी, जो वर्षा के कारण उफान पर थी। उसने अपने बड़े पुत्र को नदी किनारे छोड़ा और नवजात को लेकर नदी पार करने लगी। आधे रास्ते में ही उसने देखा कि एक विशाल बाज़ उसके नवजात शिशु पर झपट पड़ा और उसे उड़ा ले गया। चीखती-चिल्लाती पटाचारा जब वापस किनारे पर आई, तो उसका बड़ा पुत्र भी नदी की तेज धार में बह चुका था। एक ही पल में अपने पति और दोनों पुत्रों को खोकर, वह लगभग विक्षिप्त हो गई।
अर्ध-विक्षिप्त अवस्था में, अपने वस्त्रों की सुध-बुध खोए, वह श्रावस्ती पहुँची। वहाँ उसे पता चला कि पिछली रात आए भयंकर तूफ़ान में उसका घर ढह गया था और उसके माता-पिता तथा भाई की भी मृत्यु हो गई थी। अब इस संसार में उसका अपना कहलाने वाला कोई नहीं बचा था। दुःखों के इस चरम आघात ने उसे पूरी तरह से पागल कर दिया। वह नग्न अवस्था में श्रावस्ती की सड़कों पर "मेरा पुत्र कहाँ है? मेरे माता-पिता कहाँ हैं?" चिल्लाती हुई घूमने लगी। लोग उसे पत्थर मारते और उसका उपहास करते। दुःख ने उसे इस प्रकार घेर लिया था कि उसे अपने तन-मन की कोई सुधि नहीं रही।
भाग 2: प्रज्ञा का उदय
बुद्ध से भेंट
उसी समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन विहार में ठहरे हुए थे और धर्मोपदेश दे रहे थे। पटाचारा उसी विक्षिप्त अवस्था में दौड़ती हुई सभा में पहुँच गई। लोगों ने उसे रोकना चाहा, परन्तु बुद्ध ने उन्हें मना किया। उन्होंने अपनी करुणा और मैत्री भरी दृष्टि से पटाचारा को देखा और कहा, "पुत्री, सचेत हो।" बुद्ध की शांत और करुणामयी वाणी सुनकर पटाचारा को पहली बार थोड़ी सुध आई। उसे अपनी नग्न अवस्था का भान हुआ और वह शर्म से सिकुड़ गई। एक उपासक ने उस पर अपना उत्तरीय वस्त्र डाल दिया।
बुद्ध ने उसे संबोधित करते हुए कहा, "पटाचारा, तुम जिन पुत्रों, पति और माता-पिता के लिए विलाप कर रही हो, वे सब अनित्य थे। इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी की मृत्यु निश्चित है। आज तक तुमने जितने आँसू बहाए हैं, यदि उन्हें एकत्र किया जाए तो वे चारों महासागरों के जल से भी अधिक होंगे। प्रियजनों का वियोग अवश्यंभावी है, यही संसार का दुःख है। इस दुःख से मुक्ति का मार्ग स्वयं को जानने और धर्म को समझने में है।"

जागृति और प्रव्रज्या
बुद्ध के वचनों ने पटाचारा के शोक संतप्त और भ्रमित मन पर गहरा प्रभाव डाला। उसे क्षणभंगुरता और दुःख के सत्य का बोध हुआ। उसके हृदय में प्रज्ञा का उदय हुआ। उसने उसी क्षण बुद्ध से प्रव्रज्या लेने का निश्चय किया। बुद्ध की अनुमति से वह भिक्षुणी संघ में सम्मिलित हो गई।
कठिन साधना और निरंतर ध्यान के द्वारा, पटाचारा ने शीघ्र ही अर्हत्व प्राप्त कर लिया। वह न केवल स्वयं दुःख से मुक्त हुई, बल्कि अन्य दुखी स्त्रियों के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनी। उन्होंने अनेक स्त्रियों को धर्म मार्ग दिखाया और उन्हें दुःख से उबरने में सहायता की। उनकी गाथाएँ थेरीगाथा में संकलित हैं, जो आज भी साधकों को प्रेरित करती हैं। पटाचारा की कहानी चरम दुःख से परम शांति (निर्वाण) तक की यात्रा का एक सशक्त उदाहरण है।
पटाचारा की प्रेरणा: दुःख से मुक्ति का मार्ग
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