त्याग में देवी: एक अनुप्रकाशित किंवदंती

त्याग में देवी: विन्ध्याचल की एक भूली-बिसरी किंवदंती

कुछ कहानियाँ ज़मीन से जुड़ी होती हैं, कुछ आकाश से उतरती हैं — लेकिन कुछ ऐसी भी होती हैं जो आत्मा में गूंज बनकर बस जाती हैं। ‘त्याग में देवी’ एक ऐसी ही भूली-बिसरी किंवदंती है, जो शायद किसी पुरानी ताड़पत्री पर सो रही थी... हमने उसे उठाया, सँवारा और आपके मन की अग्नि में रख दिया है।

यह कहानी एक साधारण ब्राह्मण की असाधारण यात्रा है — तप, त्याग और देवी के साक्षात दर्शन तक। पर यह सिर्फ कहानी नहीं... एक दर्पण है — जिसमें शायद आप भी खुद को देखें।

विन्ध्याचल की देवी और ब्राह्मण की परीक्षा

विन्ध्याचल देवी मंदिर
विन्ध्याचल देवी मंदिर: आस्था और शक्ति का प्रतीक

प्राचीन समय की भूमिका

जब देवता और असुरों के मध्य सतत संग्राम होता रहता था, उस समय पृथ्वी पर संतुलन बनाए रखने हेतु ऋषि-मुनि कठोर तपस्या करते थे। उन्हीं दिनों एक साधारण किन्तु तपस्वी ब्राह्मण ने विन्ध्याचल पर्वत की ओर प्रस्थान किया। उसका उद्देश्य केवल एक था – देवी विन्ध्यवासिनी के दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त कर अपने गाँव को समृद्ध बनाना।

ब्राह्मण का संकल्प

ब्राह्मण ने व्रत लिया कि वह तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा, जब तक देवी उसे साक्षात दर्शन नहीं देंगी। उसकी आस्था अद्वितीय थी, और वह पूर्ण निष्ठा से पर्वत की तलहटी में आसन लगाकर तप करने लगा। विन्ध्याचल पर्वत सदियों से देवियों का निवासस्थान रहा है। वहां की वायु में दिव्यता और भय दोनों का संगम होता है। ब्राह्मण ने जब वहाँ ध्यानारूढ़ होना आरंभ किया, तब पर्वत की शक्ति ने उसकी परीक्षा लेनी शुरू कर दी। रातें लंबी हो चलीं। दिन कठोर तप में बीतने लगे। मगर देवी ने अब तक कोई संकेत नहीं दिया। क्या यह तप असफल हो जाएगा? ब्राह्मण की श्रद्धा फिर भी अडिग थी।


दिव्य परीक्षा की शुरुआत

वन में तप करते ब्राह्मण
ब्राह्मण वन में गहन तपस्या में लीन

अदृश्य आशीर्वाद और परीक्षा के संकेत

एक रात्रि, जब आकाश में केवल तारे चमक रहे थे और समस्त ब्रह्माण्ड मौन प्रतीत हो रहा था, ब्राह्मण के समीप एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ। वह कोई साधारण प्रकाश नहीं था—उसमें देवी की कृपा की आभा थी। देवी विन्ध्यवासिनी अभी प्रकट नहीं हुई थीं, लेकिन उन्होंने ब्राह्मण के तप को स्वीकार कर लिया था। उन्होंने ब्राह्मण की आस्था की परीक्षा लेने के लिए एक योजना बनाई थी – एक दिव्य परीक्षा, जो पाँच संकेतों के रूप में सामने आई:

पहला संकेत: प्रकृति की चाल

दूसरे दिन भोर होते ही ब्राह्मण ने देखा कि पेड़ की डालियाँ स्वयं उसके ऊपर झुकने लगीं। यह देवी की शक्ति का पहला संकेत था।

दूसरा संकेत: जलधारा की उल्टी दिशा

पास की जलधारा जो सदैव दक्षिण दिशा में बहती थी, अब उत्तर की ओर बहने लगी। ब्राह्मण ने इसे साधारण घटना नहीं माना।

तीसरा संकेत: पशु-पक्षियों का मौन

तीसरे दिन जंगल में अचानक मौन छा गया। ना कोई पक्षी बोला, ना कोई जानवर हिला। यह देवी की उपस्थिति का आभास था।

चौथा संकेत: अग्नि का खेल

चौथे दिन ध्यान करते समय उसके आस-पास सूखी लकड़ियों में अपने आप अग्नि जल उठी, परन्तु वह शांत और शुद्ध थी।

पाँचवां संकेत: कंठ से निकली देवी-वाणी

पाँचवे दिन ब्राह्मण की वाणी अपने आप बोल उठी – लेकिन वह देवी के स्वर में थी। यह अंतिम संकेत था कि वह परीक्षा पार कर चुका है।


देवी का साक्षात प्राकट्य

देवी विन्ध्यवासिनी का प्राकट्य
देवी विन्ध्यवासिनी का तेजोमयी एवं करुणामयी प्राकट्य

प्रकाश की देवी

ब्राह्मण के चारों ओर एक विशाल ज्योतिर्मंडल फैल गया। उस प्रकाश से न केवल वृक्ष, वन और पर्वत प्रकाशित हो उठे, बल्कि ब्राह्मण के अंतर में भी दीप जल गया। देवी विन्ध्यवासिनी उस प्रकाश के मध्य प्रकट हुईं – करुणा और तेज का अद्भुत संगम।

संवाद और देवी की शर्त

देवी ने मृदुल वाणी में कहा – "वत्स! तुम्हारे तप ने मुझे बाध्य कर दिया है प्रकट होने को। परन्तु ध्यान रहे, यह केवल दर्शन नहीं, बल्कि एक यज्ञ है – आत्म-समर्पण का।" देवी ने ब्राह्मण को एक शर्त दी – “यदि तुम अपने संकल्प को त्यागकर किसी दूसरे की सहायता कर सको, तभी मेरी कृपा प्राप्त कर सकोगे।” ब्राह्मण चकित रह गया – यह कैसी परीक्षा?

त्याग का निर्णय और करुणा की विजय

तभी पास के गाँव से एक वृद्ध स्त्री रोती हुई आई, जिसका पुत्र रोग से पीड़ित था। ब्राह्मण के पास केवल वही दिव्य जल था जो देवी ने उसे तप के बाद दिया था। उसे अब तय करना था – अपने उद्देश्य को पूरा करे या उस स्त्री की मदद करे। बिना संकोच के ब्राह्मण ने वह दिव्य जल वृद्धा को दे दिया। देवी मुस्कराईं – "तुमने असली परीक्षा पास की है, वत्स। त्याग ही सच्ची भक्ति है।"


आशीर्वाद की अमिट छाया

संत रूप में ब्राह्मण
वरदान प्राप्त ब्राह्मण, संत स्वरूप में साधना करते हुए

देवी का वरदान और विरक्ति

देवी ने उसे वरदान दिया – “जहाँ तुम जाओगे, वहां मेरी उपस्थिति सदा बनी रहेगी।” देवी का वरदान मिलने के बाद भी ब्राह्मण में कोई अहं नहीं था। उसने गाँव में निवास करने की बजाय एक निर्जन स्थल को चुना, जहाँ वह सदा ध्यानस्थ रहने लगा – केवल सेवा और साधना उसका जीवन बन गया।

सदियों तक जीवित किंवदंती

वह ब्राह्मण आज भी अपनी साधना में लीन हैं, और उनकी उपासना का प्रभाव आज भी विन्ध्याचल पर्वत पर महसूस किया जा सकता है। उसकी कहानी अब एक किंवदंती बन गई है, जो पीढ़ियों तक सुनाई जाती रही है।


कथा की सीख

यह कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची आस्था और त्याग कभी विफल नहीं जाता। कभी-कभी, जो हम सोचते हैं (जैसे केवल देवी दर्शन), वह हमारी सबसे बड़ी परीक्षा बनकर हमारे सामने आता है (जैसे दूसरे की मदद करना), और वही हमें हमारी असली शक्ति (करुणा) और उद्देश्य (सेवा) का बोध कराता है। सच्चा आशीर्वाद व्यक्तिगत लाभ में नहीं, बल्कि निस्वार्थ सेवा और त्याग में निहित है।

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