कालपथ समाचार - [पोस्ट का शीर्षक यहाँ डालें]

ज्ञानस्य प्रकाशः

पोस्ट का परिचय

विषय सामग्री का श्रोत: उदाहरण: श्रीमद्भगवद्गीता
मूल ग्रन्थ का नाम: श्रीमद्भगवद्गीता
सामग्री विवरण: अध्याय २, श्लोक ४७
मूल ग्रंथ का विषय: कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग द्वारा आत्म-साक्षात्कार
पोस्ट का उद्देश्य: कर्म के सिद्धांत और निष्काम कर्म के महत्व को समझाना।
लेखक का मंतव्य: इस पोस्ट के माध्यम से लेखक कर्मफल की आसक्ति त्यागकर अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने की प्रेरणा देना चाहता है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते

जीवन यात्रा में हम सभी कर्मों के बंधन में बंधे हैं। प्रत्येक क्षण हम कुछ न कुछ करते हैं, सोचते हैं, और अनुभव करते हैं। परन्तु क्या हम अपने कर्मों के वास्तविक स्वरूप और उनके फलों के प्रति सजग हैं? श्रीमद्भगवद्गीता हमें इसी कर्म के रहस्य को समझने की दिशा दिखाती है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

(अध्याय २, श्लोक ४७)

इस प्रसिद्ध श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को, और उसके माध्यम से समस्त मानवजाति को, कर्म का गूढ़ सिद्धांत समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में कभी नहीं। हमें न तो कर्मों के फल का कारण बनना चाहिए और न ही अकर्मण्यता में हमारी आसक्ति होनी चाहिए। यह निष्काम कर्मयोग का मूल मंत्र है।

Meditating person representing focus on action
ध्यान कर्म पर, फल पर नहीं

फल की चिंता क्यों नहीं?

जब हम फल की इच्छा से कर्म करते हैं, तो हमारा मन चिंता, भय और अशांति से भर जाता है। सफलता मिलेगी या नहीं? परिणाम कैसा होगा? ये प्रश्न हमें कर्म की प्रक्रिया से विचलित कर देते हैं। हमारी ऊर्जा बंट जाती है और हम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते। इसके विपरीत, जब हम केवल कर्म पर ध्यान केंद्रित करते हैं, पूरी लगन और ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो मन शांत और स्थिर रहता है। यह स्थिरता ही हमें कुशलता प्रदान करती है।

अकर्मण्यता, अर्थात् कर्म न करने में आसक्ति भी उतनी ही हानिकारक है। जीवन का स्वभाव ही गति और कर्म है। कर्म त्यागना संभव नहीं, किन्तु कर्मफल की आसक्ति त्यागी जा सकती है।

वीडियो: कर्मयोग की व्याख्या

कालपथ प्रस्तुत करता है: प्राचीन ज्ञान पर आधारित विशेष ऑनलाइन कार्यशाला। अभी रजिस्टर करें!
आचार्य आशीष मिश्र

Post a Comment

0 Comments