किसी अनजाने कालखंड में, या शायद इसी क्षण में, विस्तीर्ण चेतना के राज्य पर एक तेजस्वी राजा शासन करता था – महाराजा सामर्थ्य सेन। उसका नाम ही उसका गुण था। असीम ऊर्जा, अटूट संकल्प और विवेक का धनी। उसके राज्य में प्रारम्भ में केवल गिनी-चुनी महारानियाँ थीं, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ थीं: 'तृप्ति देवी' (क्षुधा और पोषण की कामना), 'छाया रानी' (सुरक्षा और आश्रय की इच्छा), 'विश्राम प्रिया' (शारीरिक और मानसिक आराम की चाह)। महाराजा इन थोड़ी सी रानियों की सेवा करके अत्यंत प्रसन्न और गौरवान्वित अनुभव करते थे। उनका हर आग्रह पूरा करना उनके पुरुषार्थ को सिद्ध करता था। राज्य में शांति थी, समृद्धि थी, संतोष था।
किन्तु, सामर्थ्य की प्रकृति विस्तार पाना है। जैसे-जैसे महाराजा की शक्ति बढ़ी, उनका राज्य फैला, वैसे-वैसे उनके मन में नई कामनाओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया। उन्हें लगा, अधिक रानियाँ मतलब अधिक वैभव, अधिक सुख, अधिक प्रतिष्ठा। और फिर प्रारम्भ हुआ अंतहीन विवाहों का सिलसिला। सबसे पहले पधारीं रानी 'महत्वाकांक्षा' – ऊँचे पद, बड़े लक्ष्य और निरंतर आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा। उनके पीछे-पीछे आईं 'कीर्ति कुमारी', जिन्हें हर क्षण प्रशंसा, यश और तालियों की गूँज चाहिए थी। फिर राजमहल में प्रवेश हुआ 'विलासप्रिया' का, जिन्हें नित नए भोग, दुर्लभ व्यंजन, महंगे परिधान और इंद्रिय सुखों की प्यास थी।
देखते ही देखते अंतःपुर भरने लगा। 'संग्रहिला देवी' आईं, जिन्हें हर वस्तु पर अपना अधिकार चाहिए था, चाहे वह उपयोगी हो या न हो। 'ज्ञानदा' ने प्रवेश किया, जो ज्ञान और सूचना की भूखी थीं, पर अक्सर तथ्यों के बोझ तले दब जाती थीं। 'अहंकारिता महारानी' तो जैसे बिन बुलाए मेहमान थीं, जो हर उपलब्धि पर राजा का सीना फुला देतीं और नई कामनाओं को निमंत्रण देतीं। 'ईर्ष्यावती' दूसरों की उपलब्धियों को देखकर कुढ़तीं और राजा को और अधिक पाने के लिए उकसातीं। 'आलस्या देवी' आराम और शिथिलता का मंत्र फूंकतीं। और सबसे कपटी थीं 'चिंतामणि', जो भविष्य की आशंकाओं से राजा को भयभीत रखती थीं। ऐसे करते-करते कब सौ रानियाँ – सौ विभिन्न, जटिल, परस्पर विरोधी कामनाएँ – महाराजा के जीवन का अभिन्न अंग बन गईं, पता ही न चला।
कामनाओं का बढ़ता कोलाहल (एक दृश्य)
(सांकेतिक वीडियो: महाराजा के जीवन में बढ़ती कामनाओं के प्रभाव को दर्शाता हुआ)
प्रारम्भ में यह विविधता महाराजा सामर्थ्य सेन को रोमांचित करती थी। वे अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर इन सौ कामनाओं को साधने का प्रयास करते। किसी के लिए साम्राज्य विस्तार करते, किसी के लिए कलाकृतियाँ बनवाते, किसी के लिए दार्शनिकों से शास्त्रार्थ करते। उन्हें लगता, "अहा! यही तो जीवन है! इतनी सारी इच्छाओं को एक साथ संतुष्ट करना ही मेरे सामर्थ्य का प्रमाण है।" उनका अभिमान शिखर पर था। वे यह भूल गए कि सामर्थ्य की सीमा है, पर कामनाओं का आकाश अनंत है।
शनैः शनैः, महाराजा की ऊर्जा क्षीण होने लगी। आयु बढ़ी, शरीर थकने लगा, मन एकाग्रता खोने लगा। अब वे पहले की भाँति हर रानी की हर इच्छा पूरी नहीं कर पाते थे। यहीं से आरम्भ हुआ पतन का दुखद अध्याय। जो रानियाँ कल तक उनके गुण गाती थीं, आज कटु वचन बोलने लगीं। 'कीर्ति कुमारी' चिल्लातीं, "आपमें अब पहले जैसी बात नहीं रही!" 'विलासप्रिया' मुँह फेर लेतीं, "आपके पास अब हमें देने को नवीनता नहीं!" 'अहंकारिता महारानी' ताना मारतीं, "आपकी शक्ति क्षीण हो रही है, आपसे अब कुछ नहीं होगा!" 'संग्रहिला देवी' असंतोष जतातीं, "पड़ोसी राजा के पास हमसे अधिक है!"
एक कामना पूरी होती, तो दस नई खड़ी हो जातीं। रानियाँ आपस में भी ईर्ष्या और द्वेष रखने लगीं। 'महत्वाकांक्षा' और 'आलस्या' में ठन जाती। 'ज्ञानदा' और 'विलासप्रिया' एक-दूसरे को नीचा दिखातीं। राजमहल अब शांति का धाम नहीं, बल्कि कामनाओं का कुरुक्षेत्र बन गया था। महाराजा सामर्थ्य सेन की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया। अधूरी इच्छाओं का डंक, पूरी हुई इच्छाओं से उत्पन्न ऊब, और भविष्य की चिंताएँ उन्हें दीमक की तरह खाने लगीं। उनका सामर्थ्य अब सृजन में नहीं, बल्कि इन विनाशकारी कामनाओं के कोलाहल से जूझने में व्यय हो रहा था।
वे जितने कमजोर होते गए, उनकी कामना रूपी रानियाँ उतनी ही उग्र, उतनी ही निर्दयी होती गईं। उन्होंने महाराजा को चारों ओर से घेर लिया। कोई फुसफुसाती, "तुम असफल हो!", कोई छाती पर चढ़कर कहती, "हमें और चाहिए, अभी चाहिए!", कोई गला दबाते हुए चीखती, "तुमने हमें धोखा दिया!" महाराजा तड़पते रहे, छटपटाते रहे, पर उनकी कराह सुनने वाला कोई न था। उनकी अपनी ही पाली-पोसी, उनकी अपनी ही निर्मित सौ रानियाँ, उनकी मृत्यु का उत्सव मनाने को आतुर थीं।
और अंततः, वह दिन आ ही गया। अपनी सौ रानियों के कर्कश कोलाहल, उनकी अतृप्त मांगों के बोझ और निरंतर मानसिक यंत्रणा के बीच, महाराजा सामर्थ्य सेन का दुर्बल शरीर और व्यथित आत्मा ने हार मान ली। वे कामनाओं के उसी मायाजाल में उलझकर, तड़प-तड़प कर চিরनिद्रा (चिरनिद्रा) में विलीन हो गए। उनका सामर्थ्य चुक गया था, उनकी जीवन-ऊर्जा को उनकी ही कामनाओं ने सोख लिया था। महल में क्षणिक सन्नाटा पसरा, फिर वही रानियाँ – वही अतृप्त कामनाएँ – किसी नए 'सामर्थ्य' की तलाश में हवा में विचरने लगीं।
कथा का मर्म: आईने में अपना अक्स
प्रिय पाठक, यह कथा केवल एक राजा और उसकी सौ रानियों की कहानी नहीं, यह हम सबके भीतर की कहानी है। वह राजा 'सामर्थ्य' आप स्वयं हैं – आपकी चेतना, आपका विवेक, आपकी ऊर्जा, आपका आत्म-बल। और वे सौ रानियाँ? वे हैं आपकी अनगिनत कामनाएँ, इच्छाएँ, वासनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ। जब तक आपका सामर्थ्य प्रबल रहता है, आप इन कामनाओं को साधते हैं, और वे सुख का भ्रम देती हैं। परन्तु जैसे ही आपका आत्म-बल क्षीण होता है, आपका विवेक ढँकता है, यही कामनाएँ आप पर हावी हो जाती हैं, आपको नियंत्रित करने लगती हैं, और अंततः आपके पतन का कारण बनती हैं।
इनकी निशानी क्या है? इनकी सबसे बड़ी निशानी है 'अतृप्ति'। एक पूरी होती है, तो दस नई जन्म लेती हैं। इनका स्वभाव है – निरंतर माँगना, कभी संतुष्ट न होना। असली विजय कामनाओं को मारने में नहीं, बल्कि उन पर विवेकपूर्ण नियंत्रण पाने में है। अपनी ऊर्जा को आवश्यक और सार्थक इच्छाओं की पूर्ति में लगाना, और निरर्थक, विनाशकारी कामनाओं के प्रति सजग रहना ही महाराजा सामर्थ्य सेन बनने से बचने का एकमात्र मार्ग है। संतुलन ही कुंजी है।
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