अरण्यानी च कौशिकः
वनवेदना प्रेमगाथा
कथा परिचय
प्रस्तुत है एक अनसुनी प्रेम कहानी, जो सहस्राब्दियों पूर्व वैदिक भारत के घने वनों और ज्ञान की खोज में लीन तपस्वियों के जीवन से प्रेरित है। यह कथा कौशिक नामक एक युवा वेदांत जिज्ञासु और अरण्यानी नामक वन की रहस्यमयी पुत्री के अप्रत्याशित मिलन और उनके मध्य पनपे पवित्र अनुराग का वर्णन करती है।
यह केवल एक प्रेम कथा नहीं, अपितु ज्ञान और प्रकृति, वैराग्य और अनुराग, शास्त्र और अनुभव के मध्य संतुलन खोजने का एक प्रयास है।
भाग 1: तपस्वी का आगमन
अतिप्राचीन काल की बात है, जब भारतवर्ष की भूमि वेदों की ऋचाओं से गुंजायमान थी और आरण्यक ज्ञान की खोज में ऋषि-मुनि घने वनों में तपस्यारत रहते थे। उन्हीं दिनों, सरस्वती नदी के तट पर बसे एक प्रसिद्ध गुरुकुल से निकलकर, युवा तपस्वी कौशिक आत्म-ज्ञान की गहन खोज में हिमालय की तलहटी में स्थित एक निर्जन वन में प्रविष्ट हुआ। कौशिक मेधावी था, शास्त्रार्थ में निपुण, और उसका मन वेदांत के गूढ़ रहस्यों में रमता था। परन्तु, उसे अनुभव हुआ कि पुस्तकीय ज्ञान की सीमाएं हैं और सत्य का साक्षात्कार प्रकृति की गोद में, एकांत चिंतन से ही संभव है।

उसने अपने गुरु से आशीर्वाद लिया और न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ वन की ओर प्रस्थान किया। वन घना था, रहस्यमयी और प्राचीन वृक्षों से आच्छादित। हवा में जंगली फूलों की मिश्रित सुगंध और अनजाने पक्षियों का कलरव व्याप्त था। कौशिक ने नदी से कुछ दूरी पर, एक विशाल वटवृक्ष के नीचे अपना छोटा सा आसन स्थापित किया। उसका लक्ष्य था – अहं ब्रह्मास्मि के सत्य को अनुभव करना, अपनी चेतना को ब्रह्मांडीय चेतना में विलीन कर देना। प्रारंभिक दिन ध्यान और शास्त्रों के मनन में बीते। वह सूर्योदय के साथ उठता, नदी में स्नान करता, कंद-मूल फल का अल्पाहार लेता और फिर घंटों ध्यान में लीन हो जाता। वन की शांति उसके मन को स्थिरता प्रदान कर रही थी, किन्तु भीतर कहीं एक अपूर्णता का बोध शेष था।
वन की नीरवता में ही आत्मा का संगीत स्पष्ट सुनाई देता है, परन्तु हृदय की अपूर्णता उस संगीत में भी एक रिक्त स्थान छोड़ जाती है।
वन केवल शांत ही नहीं था, वह जीवन से स्पंदित था। हिरणों के झुंड निर्भयता से विचरण करते, मोर अपने पंख फैलाकर नृत्य करते और कभी-कभी रात्रि में वन्य पशुओं की गर्जना भी सुनाई दे जाती। कौशिक इन सबको साक्षी भाव से देखता, प्रकृति के विराट चक्र का एक मौन दर्शक। उसे लगता था कि वह धीरे-धीरे इस वन का एक हिस्सा बनता जा रहा है, उसकी शहरी बुद्धि और शास्त्रीय अहंकार धीरे-धीरे पिघल रहे थे। पर वह नहीं जानता था कि यह वन उसके लिए केवल ज्ञान का ही नहीं, बल्कि एक ऐसे अनुभव का द्वार खोलने वाला था जो किसी शास्त्र में वर्णित नहीं था।
भाग 2: अरण्यानी से भेंट
एक मध्याह्न, जब कौशिक गहरे ध्यान में था, उसे पास ही किसी के कराहने की धीमी ध्वनि सुनाई दी। ध्यान भंग होने पर उसने आँखें खोलीं और ध्वनि की दिशा में देखा। कुछ दूर झाड़ियों में उसे एक हलचल दिखाई दी। सतर्कता से वह उस ओर बढ़ा। उसने देखा, एक युवती, जिसके वस्त्र वन की लताओं और पत्तों से बने प्रतीत हो रहे थे, का पैर एक कंटीली झाड़ी में बुरी तरह उलझ गया था और उसके टखने से रक्त की एक पतली धारा बह रही थी। युवती का मुखड़ा पीड़ा से विकृत था, पर उसकी आँखों में भय की जगह एक अद्भुत शांति और जीवटता थी।
कौशिक क्षण भर को ठिठका। वह तपस्वी था, स्त्रियों से दूर रहने का व्रत धारण किए हुए। किन्तु आर्त की पुकार सुनकर अनदेखा करना उसके धर्म के विरुद्ध था। वह निकट गया और विनम्रता से पूछा, "देवी, क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?" युवती ने चौंककर उसे देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें हिरणी के समान थीं, जिनमें वन की गहराई और निर्मलता झलकती थी। उसने धीमी किन्तु स्पष्ट आवाज़ में कहा, "हाँ तपस्वी, यदि आप इन काँटों से मेरा पैर मुक्त कर सकें तो बड़ी कृपा होगी।"

कौशिक ने सावधानी से झुककर कंटीली झाड़ी की शाखाओं को हटाया और उसके पैर को मुक्त किया। घाव गहरा तो नहीं था, पर रक्त बह रहा था। कौशिक ने अपने कमंडलु से जल लेकर घाव को धोया और पास ही उगी एक औषधि पत्ती को पहचानकर, उसे पीसकर घाव पर लगा दिया। यह ज्ञान उसे गुरुकुल में वैद्यक शास्त्र के अध्ययन से मिला था। युवती ने कृतज्ञता भरी दृष्टि से उसे देखा और कहा, "धन्यवाद, तपस्वी। मैं अरण्यानी हूँ, इस वन की पुत्री।"
"अरण्यानी?" कौशिक ने नाम दोहराया। "वन की देवी का नाम। क्या तुम यहीं रहती हो?" "हाँ," अरण्यानी ने सरलता से उत्तर दिया। "यह वन मेरा घर है, ये वृक्ष मेरे बंधु, ये पशु-पक्षी मेरे सखा।" उसकी बातों में एक नैसर्गिक काव्य था, जो कौशिक के शास्त्रीय ज्ञान से सर्वथा भिन्न था। कौशिक ने अपना परिचय दिया। उस दिन के बाद, उनकी भेंट अकस्मात होने लगी। कभी नदी तट पर, कभी कंद-मूल खोजते हुए, कभी किसी घायल पशु की सेवा करते हुए। कौशिक अरण्यानी से वन के रहस्य सीखता – कौन सी जड़ी बूटी किस काम आती है, किस पशु का पदचिह्न कैसा होता है, किस मौसम में कौन से फल लगते हैं। अरण्यानी कौशिक से शास्त्रों की बातें सुनती – सृष्टि की रचना, आत्मा का स्वरूप, धर्म और कर्म के सिद्धांत। दोनों एक दूसरे के संसार से अपरिचित थे, पर उनमें एक गहरा सम्मान और आकर्षण पनपने लगा था। कौशिक का एकांत अब उतना एकांत नहीं रहा था, उसमें अरण्यानी की उपस्थिति की एक मधुर गूंज शामिल हो गई थी।
भाग 6: शाश्वत प्रेम की गूंज
वर्षों बीत गए। कौशिक और अरण्यानी की कुटिया ज्ञान और प्रेम का केंद्र बन गई। दूर-दूर से जिज्ञासु उनके पास आने लगे – कोई शास्त्रों का गूढ़ अर्थ समझने, कोई प्रकृति के रहस्य जानने, तो कोई केवल उनके शांत और प्रेमपूर्ण जीवन की झलक पाने। कौशिक अब केवल एक तपस्वी या शास्त्रीय विद्वान नहीं था, वह एक द्रष्टा बन चुका था जिसने जीवन के सत्य को अनुभव किया था। अरण्यानी, वन की पुत्री, अब ज्ञान और करुणा की प्रतिमूर्ति बन गई थी। उनका जीवन इस बात का प्रमाण था कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – जीवन के ये चारों पुरुषार्थ एक साथ साधे जा सकते हैं, यदि जीवन का आधार प्रेम और विवेक हो।
उनकी प्रेम कहानी किसी महाकाव्य में दर्ज नहीं हुई, न ही किसी पुराण में उनका विस्तृत वर्णन मिलता है। किन्तु उनकी गाथा उस वन के कण-कण में, हवा की सरसराहट में, नदी के कलकल निनाद में और उन जिज्ञासुओं के हृदय में जीवित रही जो उनसे मिलकर गए। यह कहानी है ज्ञान और प्रकृति के संतुलन की, पुरुष और प्रकृति के सनातन मिलन की, और उस प्रेम की जो व्यक्तिगत सीमाओं को तोड़कर सार्वभौमिक बन जाता है।
कौशिक ने सीखा कि सच्चा ज्ञान वह है जो हृदय को विशाल बनाता है, जो प्रेम करना सिखाता है। अरण्यानी ने सीखा कि प्रेम केवल भावना नहीं, वह एक सचेतन चुनाव है, एक दूसरे के विकास के प्रति प्रतिबद्धता है। उनका जीवन एक मौन उपदेश बन गया – कि आत्म-ज्ञान की खोज संसार से पलायन में नहीं, बल्कि संसार को प्रेम और समझ के साथ जीने में है।

आज भी, जब कोई उस प्राचीन वन की पगडंडियों पर भटकता है, या सरस्वती (या किसी अन्य पवित्र नदी) के तट पर बैठकर ध्यान करता है, तो उसे शायद कौशिक के ज्ञान की गहराई और अरण्यानी के प्रेम की शीतलता का अनुभव हो। उनकी कहानी एक फुसफुसाहट की तरह है, जो हमें याद दिलाती है कि सबसे गहन सत्य और सबसे पवित्र प्रेम अक्सर कोलाहल से दूर, प्रकृति की शांति में और हृदय की सरलता में ही पाए जाते हैं। प्रेम एव सत्यम्। सत्यम् एव प्रेम। (प्रेम ही सत्य है। सत्य ही प्रेम है।) यही उनकी मौन गाथा का सार था, जो समय के प्रवाह में अनंत काल तक गूंजता रहेगा।
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